Thursday 23 September 2010

बचपन के वह दिन

आज अचानक लगी खींचने, उस बचपन की डोर
कहा चलो चलते हैं हम, अपने अतीत की ओर

मस्त सुहाने दिनों ने ली, तब फिर से अंगड़ाई
मन में शोर उठा और, फिर यादें सजीव हो आईं

गुजर जाये पर नहीं भूलता है, बचपन का मौसम
जीवन में कुछ क्षण आते हैं, उनमे खो जाते हैं हम

तो चलो आज ले चलती हूँ, मैं सबको अपने साथ
बचपन की उस दुनिया की, कुछ करने को बात

पिछवाड़े के आँगन में था, नीम का पेड़ बड़ा सा
निमकौरी से भरा-भरा और, जहाँ पड़ा झूला था

शीतल छाया में सब बैठें, और कुँआ था उसके पास
पेड़ पपीते और अनार के, और हवा में भरी सुवास

कुछ पेड़ भी थे अमरूदों के, उनमें थी बड़ी मिठास
कुयें का शीतल जल था अमृत, लगती थी जब प्यास

कौओं की काँव-काँव छत पर, आँगन में गौरैयाँ फुदकें
जब डालो चावल के दाने, तो वह सब खाते थे मिलके

फूल-फूल मंडरायें तितली, चढ़ें गिलहरी पेड़ों पर
शाम की बेला में आ जायें, गायें भी वापस घर पर

पात-पात और डाल-डाल को, चूमे समीर जब प्यारा
रात की रानी और बेला से, तब महके आँगन सारा

सुबह-सुबह झरने लगते थे, हरसिंगार के फूल
भरी दुपहरी में उड़ते थे पत्ते, और संग में धूल

जितनी बार छुओ उसको, तो छुईमुई शर्मा जाती
पेडों पर लिपटे गुलपेंचे की, बेल सदा ही इतराती

गुलाबास के पेड़ लगे थे, उस घर की क्यारी में
लाल, गुलाबी सभी तरह के, रंग थे फुलवारी में

जब पड़ोस के पेड़ पे, जामुन के फल आ जाते थे
चढ़कर छत पर हम सब, जामुन तोड़ के खाते थे

करी शिकायत किसी ने, तो माँ डंडा लेकर आती थी
डांट-डपट कर कान खींचकर, वापस वह ले जाती थी

इन यादों में है एक दादी, जो प्यार से हमें बुलाती थी
पिला के ठंडा शरबत हमको, मीठे आम खिलाती थी

घर के पीछे थी पगडंडी, जो जाती थी बागों की ओर
कोयल करे कुहू-कुहू जब, पेडों पर आ जाता था बौर

दूध-जलेबी या हलवा खाकर, हम सब जाते थे स्कूल
झाड़ बेर के रस्ते में और, तालाबों में कमल के फूल

पानी जब बरसे सावन में, छातीं थीं घनघोर घटायें
उछल-कूदकर नाचें हम, और कागज़ की नाव चलायें

होली खेलें रंग की पिचकारी से, चेहरे पर मलें गुलाल
पाँख लगाकर कहीं उड़ गये, जीवन के वह इतने साल

एक सपने सा था वह जीवन, और बचपन का संसार
महक प्यार की थी जिसमें, और आँगन में सदा बहार.

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